रविवार, ९ नोव्हेंबर, २०१४

अंधश्रद्धा - मनावर लादलेलं ओझं !

                 आपल्या   आसपास  आणि   सभोवतालच्या   समाजामध्ये   घडणाऱ्या   घटनांवर  आपण   जास्त   विचार  न  करता    त्यावर   आपण   दुर्लक्ष  करतो.   तर  त्या   कोणत्या   घटना   असतात .  ज्यावर  आपण   कोणत्याही   प्रकारची   चौकशी   न  करता   त्या वर  विश्वास   ठेवत  असतो .   अशा  गोष्टी  ज्या   आपल्या   मनात   घर  करून   राहातात .      त्या   आपल्या   समोर   घडून    सुद्धा   आपण  त्यांना   बळि  पडत   असतो . खरं तर  आपण   त्या   गोष्टी   विषयी  पूर्णपणे   अभ्यास   करून   त्या   विषयी  माहिती   घेऊन   ती    गोष्ट   खरी  आहे   कि  खोटी   हे  जाणून   घेतली   पाहिजे.    तरच   आपण   या   अंधारातून  बाहेर   पडू  शकतो.
             काही   महिन्या पूर्वीची   गोष्ट   माझ्या  मित्राच्या  तोंडातून      असे   ऐकायला   मिळेल,   हे  मला   कधीच   वाटले   नव्हते.  त्याला   एका   कुत्र्याने  हलकेच   चावले  होते.  (तशी  जखम   थोडीच   होती )   तर  त्यावेळी     त्याच्या   वडिलांनी   त्याला    घेऊन   डॉक्टरांजवळ   जाण्याऐवजी  एका   मांत्रिकाजवळ  घेऊन   गेले   होते.   तर  त्या   तांत्रिक   बुवाने  त्याला   मंत्र  फूंकलेला   एक   पाव  (वडापावचा पाव)  खायला   दिला  होता.  व  ज्या   जागेवर   कुत्रा   चावला  होता   त्या   जागेवरून   हात   फिरवून   मंत्र   म्हटले   होते.    हे   सर्व   कथन  सांगत   असताना      त्या  मांत्रिकावर त्याचा  पूर्ण   विश्वास   बसला   आहे ,  असे  मला  त्याच्या   चेहऱ्यावरील  भाव   सांगत   होते    हे  तो  सर्व   सांगत   होता.    त्या  वर  माझा   विश्वास   बसत  नव्हता.  तरीसुद्धा   मी  त्याला   विचारले  -   मंत्र   मारून   जखम  बरी  होते   का ?   हे  खरं   आहे   का ?  तू  डॉक्टरकडे  का    गेला  नाहिस ?  तेथे   सुद्धा   उपचार   झाला  असता  आणि   जखम   बरी  झाली   असती.    हे  प्रश्न   ऐकून   तो  उच्चारला  आणि   मला   सुद्धा  " आज्ञानाचा  डोस" पाजू  लागला.   अरे !! मित्रा   तुला   माहित   नाही.  हे  डॉक्टर   ना****  वरवर  उपचार   करतात.   रे,,,,  पण   मांत्रिक  त्यांना   तर  सर्व   काही   जमतं.  ते  त्याच्या   मंत्र   शक्तीने    आपल्याला    पूर्ण   संरक्षण   प्रधान   करतात .  तो  कुत्रा   पुन्हा तुम्हाला   चावणार  नाही   याची  हमी  सुद्धा   देतात.   पण   हे  काही   माझ्या   बुद्धीला  अजूनही   पटत  नव्हते .  यावरून   असे   लक्षात  येते   कि  , माझा  मित्र   सुद्धा   या  अंध विश्वासाला  बळी  पडला आहे.   लोकांच्या   आज्ञानाचा  फायदा   घेऊन   तंत्र - मंत्र , जादूटोणा , एक   विशिष्ट  शक्ती   असल्याचा  दावा  करुन  लोकांना   लुटने . लोकांचे   आर्थिक , शारीरिक , मानसिकतेचे  शोषण   करत  राहणे .
एखाद्याला  ताईद- गंडे, रंगीबेरंगी  दोरे  देऊन  हातात   बांधून   ठेवण्यासाठी   आणि  हे  आपले   संरक्षण  करीत   राहिल,  असे   सांगून   लोकांकडून   पैसे   लाटणे . हेच   यांचे  प्रथम   कार्य.   
                    
                   समाजात   आज्ञान  पसरून   लोकांची   दिशाभूल  करणे.   हे  या  भोंदू बाबांचे   कारस्थान.   भक्ती  या  नावाखाली   हे  भोंदूबाबा  आपलेच   फोटो   पुजनासाठी  देऊन   मीच   तो   देव  तुम्ही   माझीच   भक्ती   करा  असे  सांगत   असतो .   ईश्वर   भक्ती   सांगणे  सोडून   तो  बाबा   त्यानेच   तयार   केलेले   मंत्र   देतो   व  याचाच   जप  करत  राहा  त्यामुळे  तुम्हाला  धन- संपत्ती  प्राप्त   होईल   असे   सांगतो.   हे  कितपत   खरे  आहे.   याचा   शोध   घ्यायला   कोणी   गेलाच  नाही.  आणि   कोणाची   हिंमतसुद्धा  झाली   नाही.  जाब  विचारायची   उलट   ते  त्या   बांबाचेच  ऐकत   बसतात.   त्यामुळे  हे  बाबा, महाराज   आजवर   सामान्य   जनतेचे   शोषण   करत  आले  आहे.  
जर  कोणी   यांच्या   विरोधात   गेला   तर  ते  त्याला (   "आम्ही  तर  या  जगाची  सेवा   करत  आहोत , यासाठीच  आमचा  जन्म   झाला   आहे ,संपूर्ण   विश्वच आमचं   घर  ,,घरातले  पैसे   घरात   वापरले  तर  काय   झाले " तु  ईश्वर शक्तीला  विरोध   करीत   आहेस   असे  करु  नकोस   तुझा  नाश  होईल )  असे  काहीसे  सांगून   भीती   निर्माण   करण्याचा  प्रयत्न   करतात.   आता  तर    जवळच्या   मित्र  मैत्रीण किंवा  नातेवाई  यांच्या   घरात   शिरताना.  माझी   नजर   त्या   दरवाजावर  पडते.  ती  उलटी  टांगलेली  काळ्या   रंगाची   बाहुलीच  सांगते   कि,  तिने   आतापर्यंत   या  समाजामध्ये   आणि   या  घरात   किती   आज्ञानाचा  अंधकार  पसरून  ठेवला   आहे ते. दुकाना समोर   टांगलेल  लिंबू - मिरची   आज्ञानाची  साक्ष   देत  असते.  थेट आता  हीच   लिंबू -मिरची  प्लास्टिकमध्ये  रूपांतरीत  झाली   आहे .  त्यामुळे   आता  ती  मोठ- मोठ्या   गाडयामध्ये   सुद्धा   दिसू  लागले   आहेत.    शो -पिस  म्हणा  किंवा   अंध  विश्वास.   ते  टांगलेलच  असतं.    जसजसे  अज्ञान   पसरत  गेलं   तसतसे   अंधश्रद्धा   वाढत   गेली .
ज्या   लिंबू   मिरचा वापर  जेवणाचा   स्वाद  वाढविण्यासाठी    केला   जातो .  तिच  लिंबू  मिरची    आता   अज्ञान  पसरवते.  अंध श्रद्धा  हि  अजूनही   आपल्या   मनात  घर  करून   राहते . याला  कारणीभूत   आहे   तो  रोगराई   साराखा  पसरणारा  अज्ञान  आणि त्या वर  धरून   बसलेला   आपला  विश्वास.  
   
                   टीव्ही वर  आता  अनेक   जाहिराती   झलकत  असतात.   त्यातील   काही   जाहिराती   तर  सरल  अज्ञान   पसरून  ठेवण्याचे  काम   करतात.   उदाहरणार्थ ---  (1) " नजर   सुरक्षा   कवच"  हे  कवच  धारण   केल्यास   आपल्याला   कोणाची   नजर   लागत  नाही ,तसेच   आपल्या   धन - संपत्तीवर कोणीही   कोणत्याही   प्रकारे  नजर   लावू  शकत  नाही . असे  सरल  खोटं   सांगून  हे   जाहिरातीवाले   पैसे   लाटतात .
2) हनुमान  चालिसा  जादूयी  कवच  हे  कवच  धारण   केलेल्या   व्यक्तीला  भरपूर   प्रमाणात   धन  लाभ  होते . जर  असे  असते  तर  मला  सांगा  ते  हे  कवच  घेऊन   विक्रीसाठी   आले  असते   का???  त्यांनिच  तो  धारण  करून   धन  वाढवीत   बसले  असते .  ऐवढा  साधा  विचार   आपण    का  नाही   करत ?      आणि  महत्त्वाची   गोष्ट   म्हणजे   त्या   जाहिराती  मध्ये   काम   करणारे   कलावंत.    हे  कलावंत   त्या   जाहिरातीत  आपली   कला  सादर   करतात   की  लोकांची   दिशाभूल  करतात.   हेच   कळत  नाही. 
हे  सर्व   पाहून   आपल्या  विश्वासाला  छिद्रे   पडतात.  प्रत्येक   वाहिनीवर  या  जाहिराती  चालतात   तरी  कशा ?  तर  हे  सर्व   पैसे   आणि   पैसे   यासाठी   चाललेले   आहे.  

                    असो  ,,,   आपण  यामध्ये   पडू  नये  हेच   आपल्यासाठी   हितकारक  आहे.
आणि   आपण   दुसऱ्याला   या  अंधारातून  बाहेर   पडण्यास  मदत  करू  किंवा   सावध   करू  हेच   आपले  कर्तव्य. 

      जेथें नाहीं दृश्यभान | जेथें जाणीव हें अज्ञान |

विमळ शुद्ध स्वरूपज्ञान | यासि बोलिजे |

मंगळवार, ४ नोव्हेंबर, २०१४

खरेदी वर खरेदी

               " खरेदी " हा  शब्द  आपल्या कानावर  पडताच  आपले  मन  आनंदाने  आपल्या  आवडत्या  वस्तू  खरेदी  करून  येतं . खरं  तर  खरेदी  हा  शब्द  माणसाला  हवाहवासा  वाटणारा  असतो.  मराठीत  या  शब्दाचा  वापर  आता  कमी  झालेला  आढळतो  , कारण  आधुनिक  पिढीला  इंग्रजी  भाषेची  ओढ  जास्त  असल्याने  मराठी  शब्दा  ऐवजी  इंग्रजी  भाषेतील "shopping " या  शब्दाचा  वापर  जास्त  होताना  आपणाला  दिसतो.  आधुनिकीकरणामुळे  तो  प्रचलित  आहे .
               असो,,,,,,,, विषय  शब्दाचा   नसून   मुद्दाचा  आहे  तर,,,,,,, खरेदी  करून  मानव  आपल्या  काही  गरजा   भागवून  घेत  असतो . कौटुंबिक  उत्साह  वाटवायचा  असेल , तर shopping हा  प्रकार आलाच.  आपले  मित्र -मैञिणी  तसेच  घरातील मुले, आई , बायको , बहिन, भाऊ , आजी-आजोबा सर्व  मंडळी shopping साठी  आतूरलेलीच  जरा  कुठला  सण - उत्सव  जवळ  आला  कि  चला  shopping ला.  आता माझच घ्या ना, माझा  भाऊ  नेहमीच  म्हणत  असतो  चला shopping ला .  मला  तर  असे  वाटते  की,  मानवाच्या  तीन  मुलभुत  गरजापैंकी  खरेदी  हिच  चौथी  गरज  असायला  हवी , कारण  आपण  आपल्या  आयुष्यातील  अर्ध  आयुष्य  आणि  पैसे  या  खरेदीवरच  खर्च  करत  असतो.   हेच खरं ,,,,,,
                तरीसुद्धा  खरेदी  म्हटल्यावर  आपला  आणि specially बायकांचा  आवडता  विषय  म्हणायला  लागेल.  दिवाळी , गणपती , होळी, या  सारख्या  अनेक  सणां मध्य े दिलखुलास  खर्च  करणारे  आपण,  या  खरेदीचा  आनंद  कसा  लुटून  घेतो  हे  आपल्याच  माहित.  खरेदी साठी   एकटे  किंवा   इतरां बरोबर    जात  असतो  बाजारात   आपण  आपली   खरेदी   करीत   असताना   गर्दीत  आपली  होणारी   घाई- गडबड   तसेच   विक्रेत्याशी  आणि   आपली   किंमतीत   होणारी वर-चढ  हि  आपल्याला   नेहमीच   आठवणीत   राहते  परंतु   आता  तंत्र - ज्ञानाच्या   विकासामुळे   "e- shopping "  हा  प्रकार   येवून  ठेपला  आहे ,  त्यामुळे  खरेदीची  पद्धत   थोडी   बदलेली  आहे  e- shopping  मध्ये 
वस्तूंचे   अनेक   प्रकार   आपल्याला   पाहायची  संधी  जरी  असली  तरीदेखील   त्यात  त्या   वस्तूला  स्पर्श   करून   खरेदी   करण्याचा  अनुभव  याचा   अभाव   जाणवत  राहतो